11/24/2010

ईर्ष्या जैसी व्याधि की कोई दवा नहीं

य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये।
सुखभौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिनन्तकः।

हिंदी में भावार्थ-जो दूसरे का धन, सौंदर्य, शक्ति और प्रतिष्ठा से ईर्ष्या करता है उसकी व्याधि की कोई औषधि नहीं है।



न कुलं वृत्तही प्रमाणमिति मे मतिः।
अन्तेध्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते।।
हिंदी में भावार्थ-अगर प्रवृत्ति नीच हो तो ऊंचे कुल का प्रमाण भी सम्मान नहीं दिला सकता। निम्न श्रेणी के परिवार में जन्मा व्यक्ति प्रवृत्ति ऊंची का हो तो वह अवश्य विशिष्ट सम्मान का पात्र है।



वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ईर्ष्या का कोई इलाज नहीं है। मनुष्य में रहने वाली यह प्रवृत्ति उसका पूरा जीवन ही नरक बना देती है। मनुष्य जीवन में बहुत सारा धन कमाता और व्यय करता है पर फिर भी सुख उससे परे रहता है। सुख कोई पेड़ पर लटका फल नहीं है जो किसी के हाथ में आ जाये। वह तो एक अनुभूति है। अगर हमारे रक्तकणों में आनंद पैदा करने वाले तत्व हों तभी सुख की अनुभूति हो सकती है। इसके विपरीत लोग तो दूसरे के सुख से जले जा रहे हैं। अपनी पीड़ा से अधिक कहीं उनको दूसरे का सुख परेशान करता है। इससे कोई विरला ही मुक्त हो पाता है। ईर्ष्या और द्वेष से मनुष्य में पैदा हुआ संताप मनुष्य को बीमार बना देता है। उसके इलाज के लिये वह चिकित्सकों के पास जाता है। फिर भी उसमें सुधार नहीं होता क्योंकि ईष्र्या और द्वेष का इलाज करने वाली कोई दवा इस संसार में बनी ही नहीं है।


जो लोग जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर सम्मान पाने का मोह पालते हैं वह मूर्ख हैं। उसी तरह पैसा, पद, और प्रतिष्ठा पाने पर अगर कोई यह भ्रम पाल लेता है कि लोग उनका सम्मान करते हैं तो वह भी नहीं रखना चाहिये। लोग दिखाने के लिये अपने से अधिक धनवान का सम्मान करते हैं पर हृदय से उसी व्यक्ति को चाहते हैं जो उनसे अधिक गुणवान होता है। गुणों की पहचान ही मनुष्य की पहचान होती हैं। इसलिये अपने अंदर सद्गुणों का संचय करना चाहिए। दूसरे का सुख और वैभव देखकर अपना खून जलाने से कोई लाभ नहीं होता

अवगुण काढ़े गुण ग्रहे, हारे से हुए जीत | साहेब सों सनमुख सदा, ब्रह्म सृष्टिका एही रीत ||

11/03/2010

दीपावलीकी शुभकामना

दीपावलीकी शुभकामना 
जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज 
धर्मप्राण सुन्दरसाथजी !
आप सभीको दीपावलीकी हार्दिक शुभकामनाएँ | आपको विदित ही है कि दीपावली प्रकाशका पर्व है | यह पर्व अपने अंत:करणमें ज्ञानरूपी दीपक प्रज्जवलित कर अज्ञानरुपी अन्धकार दूर करनेके लिये प्रेरणा देता है | तारतम ज्ञानके द्वारा हृदयको प्रकाशित कर आत्माका अनुभव करने लगेंगे तो प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होगी और हम पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीराजजीके सान्निध्यका अनुभव कर पाएँगे | महामतिने इस उत्सवके लिए कहा है |
दीपनो मेलो रे ओच्छव अति भलो, जिहां सणगार करो धनी सर्व साथ |

दीपावलीके पावन पर्व पर आत्माका श्रृंगार होना चाहिए | वह प्रेमसे ही संभवहै | वास्तवमें आत्माका श्रृंगार ही प्रेम है | प्रेमसे ही परमात्मा मिलन संभव है | महामतिने कहा भी है, 
"प्रेम खोल देवे सब द्वार"
"प्रेम पहोंचावे मिने पलक"
प्रेमके द्वारा ही पारके द्वार खुलेंगे और श्री राजजीके सानिध्यका अनुभव होगा | यह प्रेम विशुद्ध प्रेम है | इसमें मायाके कोई विकार नहीं होंगे | दुनियाँमें जिसको प्रेम कहा जता है वह विषयोंका विकार है उसकी ओर उन्मुख होनेसे पतन होगा | महामतिने  जिस प्रेमकी चर्चा की वह आत्माका प्रेम है | ब्रह्मात्माएँ यही श्रृंगार धारण कर श्रीराजजीके सान्निध्यका अनुभव करेंगी |

सुन्दरसाथजी ! ब्रह्मात्माओंके लिए ही तारतमज्ञानका अवतरण हुआ है | यह ज्ञान हृदयको प्रकाशित करनेके लिए है | इसके द्वारा आलोकित हृदयमें प्रेमका अंकुर फूटेगा | तदनन्तर यह प्रेम आगे बढ़ते-बढ़ते अपने प्रियतम धनी पूर्णब्रह्म परमात्मा तक पहुँचेगा | इसी प्रेमके द्वारा हमें अपने प्रियतम धनी पूर्णब्रह्म परमात्माका अनुभव होगा | इस अनुभवको और आगे बढ़ाते जाएँ | कभी न कभी हमें अपने धनीके दर्शन अवश्य होंगे |

ध्यान रखें ! आत्मा और परमात्माको जाननेके लिए तारतम ज्ञान एवं आत्मा और परमात्माकी अनुभूतीके लिए प्रेमलक्षणा भक्तिका अवतरण हुआ है | प्रेम प्रकट होने पर हम हर क्षण श्री राजजीका अनुभव कर पायेंगे | हमें ऐसा अनुभव होगा कि मैं हर क्षण श्रीराजजीके सान्निध्यमें हूँ | 
दीपावलीका यह पावन पर्व सभी सुन्दरसाथको अपने धामधनीकी अनुभूतिके लिए सहयोगी बने | प्रणाम 

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर 

11/02/2010

दीवाली का सम्बन्ध दिल से है

आप सभीको दीपावलीकी हार्दिक मंगलमय शुभकामनाएँ |

सामने दीवाली है. एकदम सामनेहर कोई उसके स्वागत को तैयार है. धनपति की अपनी तैयारी है. निर्धन की अपनी आधी-अधूरी तैयारी है . दरअसल दीवाली का सम्बन्ध दिल से है. कहा भी तो गया है, , कि मन चंगा तो कठौती में गंगा. मन में उदासी है, जेब खाली तो कैसी दीवाली? महंगाई के कारण आम आदमी का दिवाला पिट रहा है. वह भीतर-भीतर रोता है, बाहर-बाहर मुस्काता है. लेकिन त्यौहार हमें नवीन कर देते है. दुःख के पर्वत को काट देते है. त्यौहार के आने से मन में उत्साह जगाता है, कि आने वाला कल शायद बेहतर होगा. इससे बेहतर. घर की सफाई करता है, पुताई करता है. नवीनता को जीने की कोशिश है यह. अभावो के बीच भावः ख़त्म नहीं होते. कंगाली है, फिर भी आदमी दीवाली मनायेगा. अमीर की भी दीवाली है तो गरीब की भी. सब अपनी-अपनी हैसियत से दीवाली मना लेते है. यही है अपना देश. लेकिन दीवाली के पहले भारत माता की ओर से धनपतियो से अपील तो की ही जा सकती है, कि इस दीवाली पर तुम एक काम करना- गरीब बच्चो का भी ध्यान रखना. जो बच्चे अनाथालयों में पल रहे है, उनके लिए भी कुछ मिठाईयां (नकली नहीं..), कुछ पटाखे भी खरीद कर वहां तक पहुंचा देना. यही हमारे नागरिक होने का फ़र्ज़ है. वृधाश्रम में उपेक्षित बुजुर्ग रहते है. उनके बीच भी जाना. दीवाली की खुशियाँ तब और बढ़ जायेगी. ये नुसखे आजमा कर तो देखें. दीवाली के पहले ये अपील इसलिए ताकि कोई हलचल हो. वैसे देश में अच्छा सोचने और करने वालों की कमी नहीं. मै जो बात कह रहा हूँ, बहुत से लोग ये सब करते है. उससे कहीं ज्यादा करते है |

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर 
अर्जुन राज पुरी 

प्रारब्ध और पुरुषार्थका रहस्य

प्रारब्ध और पुरुषार्थका रहस्य 
कितने ही मनुष्य प्रारब्धको, भाग्यको प्रधान बताते हैं और कितने ही पुरुषार्थको | किन्तु वास्तवमें अपने-अपने स्थानमें ये दोनों ही प्रधान हैं | धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारोंको पुरुषार्थ कहते हैं, इनमें धर्म, अर्थ, काम तो 'पुरुषार्थ' हैं और मोक्ष 'परम पुरुषार्थ' है | इन चारोंमेंसे धर्म और मोक्ष के साधनमें पुरुषार्थ ही प्रधान है | इन दोनोंको जो मनुष्य प्रारब्धपर छोड़ देता है, वह इनके लाभसे वंचित रह जाता है; क्योंकि धर्म और मोक्षका साधन प्रयत्नसाध्य है | अपने-आप सिध्द होनेवाला नहीं है, किन्तु अर्थ और कामकी सिध्दमें प्रारब्ध प्रधान है, प्रयत्न तो उसमें निमित्तमात्र है | 

श्री कृष्णजी गीतामें अर्जुन को कहते हैं कि हे अर्जुन "कर्मफलका त्याग न करनेवाला मनुष्योंके कर्मका तो अच्छा-बुरा और मिला हुआ- इस प्रकार तीन तरहका फल मरनेके पश्चात अवश्य मिलता है, किन्तु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंको कर्मोंका फल किसी कालमें भी प्राप्त नहीं होता |"

किसी कर्मको मनुष्य सकामभावसे करता है तो उसका इस लोकमें स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थोंकी प्राप्ति और परलोकमें स्वर्गादिकी प्राप्तिरूप फल होता है तथा निष्कामभावसे किये हुए थोड़े-से भी कर्त्तव्यपालनका फल परमात्माकी प्राप्तिरूप मुक्ति है- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात | गीता २ | ४० )

'इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान भयसे रक्षा कर लेता है |' मनुष्य कर्म करनेमें अधिकांश स्वतन्त्र है, पर फल भोगनेमें सर्वथा परतन्त्र है | भगवनने स्वयं कहा है- 
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि || (गीता-२ | ४७)
हे अर्जुन ! 'तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके पलोंमें कभी नहीं | इसलिये तु फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो |' अतएव मनुष्यको उचित है कि निष्कामभावसे अपने कर्त्तव्यकर्मका पालन करे | जो किये हुए कर्मोंका पल न चाहकर कर्त्तव्यकर्म कराता है, उसका अंत:कारण शुध्द होकर उसे परमात्माकी 
प्राप्तिरूप मुक्ति मिल जाती है |

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर
अर्जुन राज पुरी 

10/28/2010

वन्दन गुरु देवकी

वन्दन गुरु देवकी 
अनन्त विभूषित परमवन्दनीय प्रात:स्मरणीय जगतगुरु आचार्य श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज के इन पावन चरण कमलोंमें पुष्प अर्पित शाष्टांग दण्डवत प्रेम-प्रणाम भेट में चढ़ाता हूँ |

आज के इस पावन सन्त मिलन के शुभ बेला पर उपस्थित सन्त महापुरुष, विद्वोत वर्ग, विद्यार्थी मित्रों, श्री ५ नवतनपुरी धाम के माननीय ट्रस्टी वर्ग तथा दूर-दूरसे पधारे हुए भक्त समुदाय तथा श्री राजश्यमाजी के लाडिले प्यारे सुन्दरसाथको मेरा अन्तर हृदय से पुष्प अर्पित प्रेम प्रणाम |

प्यारे सुन्दरसाथजी ! सतगुरु की महिमा गानेसे गाया नहीं जा सक्ता, लिखने से लिखा नहीं जा सक्ता, सब्दों के द्वारा पुष्टि किया नहीं जा सक्ता है. क्योंकि गुरु और गोविन्द दोनों एक हैं | इन दोनों की महिमा जितनी भी लिखी जय, कही जय, तथा सूनी जय, फ़िर भी कमी ही होती है | और कमी का ही महेसूश होता ही रहेगा |

सन्त कबीरदासजी इस बातको पुष्टी करते हैं, कि अगर शीश देकर गुरु मिल जाय तो भी सस्ता जान | गुरु गीता में कहा है, गुरु 
ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही महेश्वर हैं, गुरु ही साक्षात पूर्णब्रह्म परमात्मा हैं | 
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमुर्तिम |
द्वंदातीतं गगन सद्रिषम तत्त्वमस्यादि लक्ष्यं ||
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वदा साक्षीरुपम |
भावातीतं त्रिगुण रहितं सद्गुरु तं नमामी ||
सुन्दरसाथजी ! जो ब्रह्मानन्द स्वारूप, परम सुख दाता, देवल ज्ञानमूर्ति, द्वन्दोंसे परे, गगन सदृश, तत्त्वमसि आदि महावाक्योंके लक्ष्यार्थभूत, एक, नित्य, विमल, अचल, समस्त बुद्धियोंके साक्षी और भावातीत हैं उन त्रिगुण रहित सदगुरुको मैं प्रणाम परता हूँ    |

प्यारे सुन्दरसाथजी इन्हीं दो शब्दों के साथ समस्त स-चराचर ब्रह्माण्डमें व्याप्त पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्णजी के चरणोंके जिन्होंने साक्षात दर्शन का अनुभव करवाया ऐसे सतगुरु श्री देवचंद्रजी महाराज तथा अनन्त विभूषित परमवन्दनीय सुख के दाता वर्तमान सतगुरु श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज के उन पावन चरण-कमलोंमें तन, मन श्रद्धा से पुष्प अर्पित प्रेम प्रणाम करता हूँ || प्रणाम ||

श्री ५ नवतनपुरी धाम सन्त सभा 
अर्जुन राज  

9/18/2010

कहे महामत प्रेम समान,

कहे  महामत  प्रेम  समान,  तुम  दूजा  जिन  कोई  जान ।
ले    उछरंग  ते  घर   आए,   पिया   प्रेमें  कंठ लगाए ।। ६६ ।।

7/31/2010

अब्वल मेहेर है तित

महामति श्री प्राणनाथजी कहते हैं- प्रियतम परमात्माकी मधुर कृपाको मैंने अन्तरहृदयसे विचार पूर्वक देखा तो जहाँ उनका अलौकिक प्रेम रहता, वहीं पहलेसे ही मेहेरकी उपस्थिति भी रहती है ।
पूर्णब्रह्म परमात्माकी कृपा और प्रेमकी तुलना हम नहीं कर सकते हैं क्योंकि दोनों महान हैं । इसमें छोटा-बड़ा न्यूनाधिककी बात नहीं है । किसी माँ से पूछे कि-तुम्हारे दो बेटेमें से किससे अधिक प्यार है ? वह माँ क्या उत्तर देगी ? दोनों बेटे अपने हैं, किसमें ज्यादा प्रेम है कैसे कहें ? दोनोंमें बराबर रहता है । फ़िर भी उस माँ से कहा जाए कि तुम किसे अलग कर सकती हो ? वह कहेगी बड़ा बेटा कुछ समर्थ है, लेकिन छोटा तो कुछ नहीं कर सकता । अत: यदि लेजाना चाहते होतो बडेको लेजाना । विवश होकर माँ ऐसा उत्तर देगी । माँका प्यार, दोनोंमें न्यूनाधिक नहीं रहता है । इसी प्रकार परब्रह्म परमात्माकी मेहेर और इश्कमें कम ज्यादा नहीं है । एक सिक्केकी दो पहलूकी भाँति है । परन्तु महामति श्री प्राणनाथजी का कथन है कि यदि विवेकपूर्वक दिल, दिमागसे विचार कर देखा जाए तो जहाँ जिसके ऊपर परमात्माके अटूट प्रेम रहता है, वह प्रेम भी परमात्माके ही कृपा दृष्टिसे जानना चाहिए । यदि उनकी कृपा न होगी तो प्रेम भी कैसे उपलब्ध होगी ? कृपासागरकी कृपा के बिना कुछ भी होना संभव नहीं है । पल-पल क्षण-क्षण, कण-कणमें उनकी अमृतमयी कृपाकी वर्षा हो रही है एवं जहाँ प्रेमका अस्तित्व रहता है उससे पूर्व ही वहाँ मेहेरकी मौजूदगी रहती है । प्रिय सुन्दरसाथजी परमात्मा कि प्रेम (मेहेर) को समझने के लिए विशाल हृदयकी आवसेकता है । प्रणाम ।
अर्जुन राज

7/01/2010

प्रेम पात्र

प्रेम पत्र :-
श्री धामधनीजीके लाड़ले प्यारे सुन्दरसाथजी ! परमधामके चितवनी द्वारा विवेक जाग्रत होने से सत असत का ज्ञान हो जाता है । सत असत के वास्तविक ज्ञान हो जाने के पश्चात पराभव (अनन्य प्रेम) पैदा होता चला जाता है । पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्रीकृष्णजीके लिए तो हृदयका समर्पण ही प्रेम है । प्रेम और परमात्मा एक दूसरे के रूप है "प्रेम ब्रह्म दोऊ एक है" दण्ड देनेका अधिकार भी सिर्फ़ उसे है जो प्रेम करता है, तथा प्रेम, प्रेमी और प्रेमपात्र तीन होकर भी एक है, उस प्रेमका पात्र कैसा होना चाहिए इसी विषय पर इस लेख में विचार किया जा रहा है ।
यह संसार प्रेमके बल पर ही चल रहा है । प्रेमी आत्माकी दृष्टिमें जाती पति मजहब व देश-प्रदेशका प्रश्न नही उठाता है । प्रेम तो जीवनकी मधुराती-मधुर वास्तु है । प्रेम कभी भी हक नहीं माँगता, वह तो हमेशा देता है । आत्म दृष्टिमें सब एक हैं, समदृष्टि है सब उस परात्पर पूर्णब्रह्म परमात्माके बन्दे हैं । इसी पर प्रकाश डालते हुए कबीर साहेबजी कहते हैं - एक नूर से सब जग उपजिया, कौन भले कौन मन्दे । महामति श्री प्राणनाथजी अपने श्री मुख से कहते हैं-
पर सबाब तिनको होवही, छोटा बड़ा जो किन ।
एकै नज़रों देखिए, सबका खाबिंद पिउ !! (श्री तारतम सागर)
प्रेम दुनियाकी रोशनी है । प्रेम में खुदाके नूरकी झलक है । तलवार एक वस्तुके दो टुकड़े करती है । प्रेम दो टुकड़ो (दो दिलों) को एक करता है । रोगी आदमीको प्रेमका एक शब्द सौ डाक्टरोंसे बढ़कर है । प्रेम मानवताका दूसरा नाम है । एक ही सबक सीखनेकी ज़रूरत है; वह है प्रेमका सबक़ । प्रेम अमीर ग़रीब पर समान प्रभाव डालता है । प्रेम भिखारियों तथा बादशाहों को एक ही आसन पर बिठाता है । प्रेमी आत्मा कभी पागल और सज्जन नहीं देखता वह तो चारो तरफ प्रेम ही प्रेम देखता है ।
सच्चा प्रेम लेना नहीं जानता, वह केवल देना जानता है । सच्चे प्रेम में आशा नहीं होता है । प्रेम निस्वार्थ एवं परोपकारी होता है । परमात्मा के मार्ग में आत्माका आशारहित नि:स्वार्थ प्रेम चाहिए । परमात्मा जिस स्थितिमें रखें, उसी में संतुष्ट रहना है । प्रेम आत्माका स्वभाव है, गुण है । यह हम सब में है इसे ही जाग्रत करना है । यह परमात्माका क़ानून है, श्रीराजजी महाराजजीके आदेशकी परिपूर्णता है । प्यारे सुन्दरसाथजी प्रेम लिखने और बोलनेका विषय नहीं है । यह अद्वितीय चमत्कार है । एक चुम्बकीय आकर्षणके समान है । पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्णजी के आदेश के द्वारा ही यह संसार बनाया गया है । यह हुक्म (आदेश) का ही पसारा है, और यहाँ से वापिस ले जाने वाला भी आदेश ही है । खुदी एवं अहंकार के त्याग का नाम ही समर्पण है । इसी से आत्मिक जागृति सम्भव है ।
संसार की कोई वास्तु सरकता रहे, हानी हो जाये, परमात्माका सच्चा प्रेमी कभी दु:खी नहीं होता है । जो दु:ख में दुखी और उदास रहे तो समझिये वह सच्चा प्रेम से दूर है । धामधनी की अंगना तो संकट में भी मुस्कुराती रहती है । प्रसन्न चित्त रहती है । अपने धनीकी याद में आनन्दित रहती है । वह जानती है कि मैं अकेली नहीं, मेरा प्रियतम मेरे पास हमेशा साथ है । वह पूरे संसार के काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान को त्याग देती है, एक अपने प्रियतम धामधनी श्री कृष्णजी पर ही विश्वास रखती है । कुरान शरीफ में कहा है-"जाहिदों का वुजू हाथ पैर और मुँह धोकर होता है" ब्रह्मात्माओंका वुजू दुनिया की ओर से हाथ धोना है" श्री तारतम वाणी में कहा है-
मोमिन कहिए वाको, जो छोड़े चौद तबक ।
मा सिवा अल्ला के, और करें सब तारक ।। (श्री तारतम सागर)
सच्चे प्रेम की यही कसौटी है कि उसके पास से अगर कोई सांसारिक वस्तु छिना जाए , तो उसको इसके प्रति कोई दु:ख नहीं होता है । यदि धामधनी की याद, स्मरण, भजन का समय व्यर्थ चला गया तो गहरा दु:ख होता है । प्रेम को इस स्थिति आने पर आत्मा को प्रेम की झलकें प्राप्त होने लगती है । उसे प्रियतम के सिवाय किसी का ध्यान ही नहीं रहता है । व्यवहार में बनिये या व्यापारी के समान लेन-देन करिए परन्तु प्रेमी आत्मा तो निस्वार्थ सेवा करती है । सब भय तथा डर से दूर हो जाती है । एवं राग द्वैष से रहित हो जाता है ।
अगर परिस्थितियां अनुकूल हो, सब प्रकार के सुख चैन हो तो प्रेम के रास्ते पर चलना आसान है, अच्छा लगता है । परन्तु मामूली सी प्रतिकूल परिस्थितियों में हम डगमगाने लगते हैं । प्रेम के रास्ते पर चलने वाला सच्चा प्रेमी उस समयमें भी डगमगाती है । प्रियतम धामधनी पर तन, मन, धन सब न्योछावर उसी प्रकार उसी श्रद्धाभावसे करता रहता है । वास्तव में वह प्रेम, प्रेम नहीं जो परिस्थितियों के बदलने पर बदल जाये । सच्चा प्रेम एक अटल निशाना है जो मुसीबतों के तूफ़ान आने पर भी नहीं बदला जा सकता है। सच्चा प्रेम अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी परिस्थितिमें बदलता नहीं है । किसी भी परिस्थिति से झुकता नहीं है । वह किसी के मिटाए से मिटता भी नहीं है । सच्चा प्रेम एक निश्चल भाव है जो हर परिस्थितियों तथा तूफानों का सामना करता है । बल्कि विषम परिस्थितियों में सच्चा प्रेम और भी मजबूत हो जाता है । क्योंकि वह प्रेम प्रियतम के लिए हैं । प्रेम एक पवित्र भावना है, हृदय की विशालता है जिसमें बेखुदी (निस्वार्थ) की लहरे उमड़ती हैं । सच्चा प्रेम में बनावटी नहीं होता है, असलियत ही उसका पहिचान होता है ।
सन्तों ने प्रेम को दो प्रकार का कहा है । एक बनावटी या मजाज़ी दूसरा पूर्णब्रह्म परमात्माका (मूल प्रेम) पहला लगाव, मोह इस संसारके मान मर्यादा, पद, धन दौलत व संसार के परिवार व बच्चों से है । यह हमको अनित्य पदार्थों से बांधता है । पूर्णब्रह्म परमात्माका (सच्चा प्रेम) हमें अपने प्रियतम में बांधता है । धामधनी से हमारा मूल सम्बन्ध सदैव से हैं । प्रतेक ब्रह्मात्माओं में परमात्माका प्रेम विद्यमान है । परन्तु माया का आवरण पड़ने के बजह हम उनको देख नहीं सकते हैं । इस आवरण (माया) को दूर करने के लिए तारतम ज्ञान तथा धामधनी के दया की परम आवश्यकता है, तभी माया का आवरण दूर होगा ।
प्रिय सुन्दरसाथजी ! सांसारिक प्रेमको छोड़कर प्रियतमके प्रेम पर कुरबान होना है । अपने अन्तर में धामधनी के प्रेम को भरना है । इस प्रेम के बिना भक्ति केवल पाखण्ड है । इस सच्चे प्रेम के बिना मनुष्य पशु के समान है तथा चौरासी का आवागमन में ही रहता है । श्री कबीर साहेबजी ने कहा है-
जहि घट प्रेम न प्रीति, रस पुनि रसना नहीं नाम ।
ते नर पशु संसार में, उपजी खपे बेकाम ॥
हमारी आत्मा के पास प्रेम का गुप्त खजाना है । आत्मा पर माया का आवरण है माया के सम्पर्क से रहित होते ही सच्चा प्रेम जाग्रत होता है । यही धामधनी की प्रार्थना है जो आठों पहर चलती रहती है । प्रेम और संसार एक जगह नहीं रह सकता "अर्स ल्यों या दुनी, दोऊ पाइये न एक ठौर" प्रेम सब सीमाओं से परे हैं । वहाँ मन बुद्धि के क्षेत्र से अलग होकर ही जाना पड़ता है । यह ब्रह्मात्माओं की प्रेम तीनो गुणों से ऊपर हैं । ब्रह्मात्माओं की प्रेम का ज्ञान पुस्तक में नहीं है । यह स्वत: सिद्ध है, अविनाशी है । अनुभव का विषय है । सच्चा प्रेम आने पर अपने प्रियतम के प्रति विरह पैदा होता है इस विरह की अग्नि में ही सत का बोध छिपा है । सत्य और असत्य का जब ज्ञान हो जाता है तभी पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण का दर्शन सम्भव है । परमात्मा का सच्चा प्रेमी वही है जो दूसरों को आनन्दरूप करदे । प्रणाम ।
श्री अर्जुन राज